ज्ञानेश्वरी पृ. 122

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग


योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ॥41॥

देखो, यद्यपि यह संशय इतना अधिक व्यापक है, पर फिर भी एक उपाय से इसका नियन्त्रण हो सकता है। यदि हमारे हाथ में ज्ञानरूप खड्ग हो तो उस तीक्ष्ण ज्ञान-खड्ग से इसका जड़ से सफाया हो जाता है और फिर मन में लेशमात्र भी इसका कोई अंश शेष नहीं रह जाता।[1]


तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन: ।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥42॥
ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भग्वद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे।
श्रीकृष्णर्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसन्न्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्याय:॥4॥

“इसलिये हे पार्थ! तुम शीघ्र उठो और अपने हृदय में स्थित संशय का नाश कर डालो।” इस प्रकार सर्वश्रेष्ठ और ज्ञानरूपी दीपक श्रीकृष्ण ने यह सब बातें कृपापूर्वक अर्जुन से कहीं। हे महाराज धृतराष्ट्र! आप भी इन सब बातों को अपने चित्त में धारण करें। श्रीकृष्ण की पूर्वापर की सब बातों का विचार करके पाण्डुपुत्र अर्जुन अब जो प्रश्न करेंगे, उसका प्रसंग भक्ति का भण्डार और रसाविभावकों को प्रौढ़ता से पूर्ण है। अब आगे उसी प्रसंग की चर्चा की जायगी। जिस शान्त रस के माधुर्य पर शेष आठों रस निछावर करके फेंक देने के योग्य होते हैं और जिस शान्त रस में सज्जनों की बुद्धि को विश्राम मिलता है, वह शान्त रस इस कथा में अपने अपूर्व परिपाक को प्राप्त होगा। अब आप लोग समुद्र से भी अधिक गम्भीर और अर्थपूर्ण भाषा में इस कथा का ध्यानपूर्वक श्रवण करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (207-208)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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