श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
देखो, यद्यपि यह संशय इतना अधिक व्यापक है, पर फिर भी एक उपाय से इसका नियन्त्रण हो सकता है। यदि हमारे हाथ में ज्ञानरूप खड्ग हो तो उस तीक्ष्ण ज्ञान-खड्ग से इसका जड़ से सफाया हो जाता है और फिर मन में लेशमात्र भी इसका कोई अंश शेष नहीं रह जाता।[1]
“इसलिये हे पार्थ! तुम शीघ्र उठो और अपने हृदय में स्थित संशय का नाश कर डालो।” इस प्रकार सर्वश्रेष्ठ और ज्ञानरूपी दीपक श्रीकृष्ण ने यह सब बातें कृपापूर्वक अर्जुन से कहीं। हे महाराज धृतराष्ट्र! आप भी इन सब बातों को अपने चित्त में धारण करें। श्रीकृष्ण की पूर्वापर की सब बातों का विचार करके पाण्डुपुत्र अर्जुन अब जो प्रश्न करेंगे, उसका प्रसंग भक्ति का भण्डार और रसाविभावकों को प्रौढ़ता से पूर्ण है। अब आगे उसी प्रसंग की चर्चा की जायगी। जिस शान्त रस के माधुर्य पर शेष आठों रस निछावर करके फेंक देने के योग्य होते हैं और जिस शान्त रस में सज्जनों की बुद्धि को विश्राम मिलता है, वह शान्त रस इस कथा में अपने अपूर्व परिपाक को प्राप्त होगा। अब आप लोग समुद्र से भी अधिक गम्भीर और अर्थपूर्ण भाषा में इस कथा का ध्यानपूर्वक श्रवण करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (207-208)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |