श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
तुम चाहे कल्मष के आगर, भ्रान्ति के सागर और विकारों के (व्यामोह के) पर्वत ही क्यों न हो, तो भी इस ज्ञानशक्ति के सामने ये सब बातें अत्यन्त तुच्छ ठहरती हैं। इस ज्ञान मं ऐसी ही उत्तम निर्दोष सामर्थ्य है। जिस ज्ञानरूपी प्रकाश के समक्ष उस अमूर्त परम तत्त्व की विश्वाभासरूपी छाया भी शेष नहीं रह जाती, उस ज्ञान को तुम्हारे मन की कालुष्य को भगाने में भला कितना श्रम करना पड़ेगा? इस सम्बन्ध में तो किसी प्रकार की शंका करना ही पागलपन के सिवा कुछ नहीं है। इस संसार में इस ज्ञान के समान व्यापक, समर्थ और कोई दूसरी चीज है ही नहीं।[1]
प्रलय काल के जिस तूफान के समक्ष तीनों लोक भी जलकर आकाश में धूम्र की भाँति उड़ जाता है, भला उसके समक्ष साधारण बादल कहाँ तक टिक सकते हैं? अथवा जो प्रलय काल की अग्नि वायु की शक्ति से स्वयं जल को भी भस्म कर डालती है, वह प्रलयाग्नि क्या कभी घास-फूस और काष्ठ के समक्ष दब सकती है?[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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