ज्ञानेश्वरी पृ. 118

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग


अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम: ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यासि ॥36॥

तुम चाहे कल्मष के आगर, भ्रान्ति के सागर और विकारों के (व्यामोह के) पर्वत ही क्यों न हो, तो भी इस ज्ञानशक्ति के सामने ये सब बातें अत्यन्त तुच्छ ठहरती हैं। इस ज्ञान मं ऐसी ही उत्तम निर्दोष सामर्थ्य है। जिस ज्ञानरूपी प्रकाश के समक्ष उस अमूर्त परम तत्त्व की विश्वाभासरूपी छाया भी शेष नहीं रह जाती, उस ज्ञान को तुम्हारे मन की कालुष्य को भगाने में भला कितना श्रम करना पड़ेगा? इस सम्बन्ध में तो किसी प्रकार की शंका करना ही पागलपन के सिवा कुछ नहीं है। इस संसार में इस ज्ञान के समान व्यापक, समर्थ और कोई दूसरी चीज है ही नहीं।[1]


यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥37॥

प्रलय काल के जिस तूफान के समक्ष तीनों लोक भी जलकर आकाश में धूम्र की भाँति उड़ जाता है, भला उसके समक्ष साधारण बादल कहाँ तक टिक सकते हैं? अथवा जो प्रलय काल की अग्नि वायु की शक्ति से स्वयं जल को भी भस्म कर डालती है, वह प्रलयाग्नि क्या कभी घास-फूस और काष्ठ के समक्ष दब सकती है?[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (172-175)
  2. (176-177)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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