श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
यदि तुम उस उत्तम ज्ञान को पाना चाहते हो तो तुम्हें हर प्रकार से इन सन्तों की सर्वस्व से सेवा करनी चाहिये; क्योंकि साधुजनों की सेवा ही ज्ञानरूपी मन्दिर की दहलीज (द्वार) है। इसलिये हे सुभट! तुम सेवा करके इस ज्ञान को अपने अधीन करो। इसके लिये शरीर, मन और प्राण से सन्तों के चरणों में जाना चाहिये और अभिमानशून्य होकर उनकी खूब सेवा करनी चाहिये। ऐसा करने पर जिस ज्ञान की हमें अभिलाषा है, उसके विषय में पूछने पर ये सन्तजन उस अभिलषित ज्ञान का भी हमें उपदेश देंगे और वह ज्ञान ऐसा है कि जिसका उपदेश यदि हृदय में समा जाय तो वह संकल्पहीन हो जाता है।[1]
उनके उपदेशरूप प्रकाश से भयरहित हुआ चित्त ब्रह्म जैसा संशयरहित होता है। उस समय तुम स्वयं अपने समेत यह समस्त जगत् निरन्तर मेरे स्व-स्वयरूप में ही देख सकोगे। हे पार्थ! जब श्रीगुरु की कृपा होगी, तब इस ज्ञानरूपी प्रकाश की प्रभात होगी और अज्ञानान्धकार नष्ट हो जायगा।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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