ज्ञानेश्वरी पृ. 117

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग


तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ॥34॥

यदि तुम उस उत्तम ज्ञान को पाना चाहते हो तो तुम्हें हर प्रकार से इन सन्तों की सर्वस्व से सेवा करनी चाहिये; क्योंकि साधुजनों की सेवा ही ज्ञानरूपी मन्दिर की दहलीज (द्वार) है। इसलिये हे सुभट! तुम सेवा करके इस ज्ञान को अपने अधीन करो। इसके लिये शरीर, मन और प्राण से सन्तों के चरणों में जाना चाहिये और अभिमानशून्य होकर उनकी खूब सेवा करनी चाहिये। ऐसा करने पर जिस ज्ञान की हमें अभिलाषा है, उसके विषय में पूछने पर ये सन्तजन उस अभिलषित ज्ञान का भी हमें उपदेश देंगे और वह ज्ञान ऐसा है कि जिसका उपदेश यदि हृदय में समा जाय तो वह संकल्पहीन हो जाता है।[1]


यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥35॥

उनके उपदेशरूप प्रकाश से भयरहित हुआ चित्त ब्रह्म जैसा संशयरहित होता है। उस समय तुम स्वयं अपने समेत यह समस्त जगत् निरन्तर मेरे स्व-स्वयरूप में ही देख सकोगे। हे पार्थ! जब श्रीगुरु की कृपा होगी, तब इस ज्ञानरूपी प्रकाश की प्रभात होगी और अज्ञानान्धकार नष्ट हो जायगा।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (165-168)
  2. (169-171)

संबंधित लेख

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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