श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
यज्ञ के जो अनेक प्रकार मैंने तुम्हें बतलाये हैं, उनका वेदों ने अत्यन्त विस्तार से निरूपण किया है। पर हमें उस विस्तार से क्या लेना-देना है। बस, इतनी बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिये कि ये सब (पीछे कहे गये यज्ञादि) कर्म से उत्पन्न होते हैं इतना जान लिया तो कर्म से अपने आप मोक्ष हो जाता है।[1]
हे अर्जुन! वेद जिनका मूल है और जो बाह्य-क्रिया प्रधान स्थूल-यज्ञ है, उनका अपूर्व फल स्वर्ग का सुख ही है। उन यज्ञों में एकमात्र जड़-द्रव्यों की ही आहुति दी जाती है; इसलिये जैसे सूर्य के समक्ष समस्त तारों का तेज निष्प्रभ हो जाता है, ठीक वैसे ही इन ज्ञान-यज्ञ के समक्ष ये सब जड़-यज्ञ निष्प्रभ हो जाते हैं। देखो, परमात्मस्वरूप सुख की ठेव (संग्रह) हस्तगत करने के लिये योगी लोग ज्ञानरूप अंजन बुद्धिरूप आँखों में डालने के लिये कभी भी भूलते नहीं, जो चालू (वर्तमान) कर्म के समाप्ति का स्थान हैं, जो कर्मातीत ज्ञान की खान हैं, आत्मसुख के लिये जो आर्त हैं उनके साधनों की जो तृप्ति है, जिनके यहाँ प्रवृत्ति पंगु होती है, तर्क दृष्टिहीन हो जाता है, इन्द्रियाँ विषयों का संग भूल जाती हैं, जिससे मन का मनत्व ही विनष्ट हो जाता है, शब्द का शब्दत्व बन्द हो जाता है और ज्ञेय का पता लग जाता है, जो ज्ञान-वैराग्य की इच्छा पूर्ण कर देता है, विवेक का निराकरण करता है और जो अनायास ही आत्म-तत्त्व के साथ भेंट करा देता है[2], |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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