श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
इसी प्रकार अब तुम यह भी जान लो कि मनुष्यलोक में जो ये चारों वर्ण दृष्टिगोचर होते हैं वे भी मैंने ही गुणों और कर्मों के विभागों के अनुसार उत्पन्न किये हैं; क्योंकि कर्मों के आचरण का विचार प्रकृति (माया) के ही आश्रय से और गुणों के ही मिश्रण से हुआ है। हे धनुर्धर! ये सब मनुष्य मूलरूप से एक ही वर्ण के हैं; पर गुण तथा कर्म की नीति के अनुसार चार वर्णों में बाँटे गये हैं। इसलिये हे पार्थ! मैं कहता हूँ कि इस वर्णभेद की संस्था का मैं कर्ता नहीं हूँ।[1]
जो इस तत्त्व को ठीक तरह से समझ लेता है कि ये सब (वर्ण-विभाग) मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं, पर फिर भी मैंने इन्हें नहीं बनाया है, वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है।[2]
हे धनुर्धर! जो मुमुक्षुजन अब तक हुए हैं, उन सब लोगों ने मेरे इस मूलस्वरूप को अच्छी तरह से जानकर समस्त कर्मों को किया है। पर जैसे भूना हुआ बीज बोने से कभी अंकुरित नहीं होता, वैसे ही उनके वे कामनारहित कर्म उनके लिये मोक्ष देने वाले हुए हैं। हे अर्जुन! इन विषयों के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य एक और बात है कि कर्म और अकर्म का विचार बुद्धिमान मनुष्यों को भी अपनी बुद्धि के अनुसार करने में आयेगा ऐसी बात नहीं है।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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