श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
प्रायः जो लोग मेरे साथ जैसा बर्ताव करते हैं, उनके साथ मैं भी वैसा ही बर्ताव करता हूँ। तुम यह बात अच्छी तरह से जान लो कि मनुष्य मात्र में स्वभावतः मेरे ही प्रति भक्ति रहती है अर्थात् सबके मन का झुकाव मेरी भक्ति करने के तरफ रहता है। परन्तु ज्ञान के बिना उन मनुष्यों का पतन होता है, वह ऐसे कि, उनमें भेदबुद्धि उत्पन्न होती है। उसी कारण मेरे एक होने पर मुझमें अनेकत्व की कल्पना करते हैं। इसीलिये उन लोगों को भेदरहित चीजों में भी भेद दिखायी देता है और वे नामरहित आत्मतत्त्व का भी नाम रखते हैं तथा जो चर्चा का विषय बन ही नहीं सकता उसे देव अथवा देवी कहते हैं। जो आत्मस्वरूप सर्वत्र और सर्वदा एक समान रहता है उसी में इन लोगों को अपने मन की खराबी के कारण उत्तम और अधम की परिकल्पना करनी पड़ती है।[1]
वे लोग अपने मन में नाना प्रकार की कामनाओं को रखकर उचित विधि-विधान से अपनी पसंदीदा अनेक देवी-देवताओं की उपासना करते हैं। फिर जो-जो अभिलषित वस्तुएँ वे लोग चाहते हैं, वे सब-की-सब वस्तुएँ उन्हें प्राप्त होती हैं। पर यह बात तुम अच्छी तरह से समझ लो कि ये सब किये हुए कर्मों के ही फल होते हैं। वास्तव में यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि कर्म के अलावा यहाँ न तो कोई और दाता है और न तो कोई ग्रहीता। इस संसार में केवल कर्म ही फल देने वाले होते हैं। जैसे भूमि में वही उगता है, जो बोया जाता है अथवा दर्पण में जो देखता है, उसी की प्रतिच्छाया उसमें दिखायी देती है अथवा जैसे पर्वत के नीचे खड़े होकर जो कुछ भी कहा जाय, उसी की ही प्रतिध्वनि सुनायी पड़ती है; वैसे ही हे किरीटी! यद्यपि इन सब देवियों और देवताओं के भजनों का मैं ही साक्षीभूत हूँ, फिर भी उपासक की भावना के अनुसार उसे भजन का फल प्राप्त होता है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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