श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
मैं मेरा अजत्व (अजन्मा) भाव सुरक्षित रखते हुए जन्म लेता हूँ और कर्म शून्य होने पर भी कर्मों को करता हूँ। जो मनुष्य मेरे अलिप्त भावों को जानता है, उसी को परम मुक्त जानना चाहिये। इस प्रकार का मनुष्य संसार में रहकर भी कर्मों को आसक्ति से नहीं करता और शरीर धारण करने पर भी शरीर-भाव से नहीं बँधता; और जिस समय वह पंचतत्त्व में विलीन होता है, उस समय वह मेरे ही स्वरूप में आ मिलता है।[1]
सामान्यतः अपने लिये अथवा दूसरों के लिये जो गतागत का शोक नहीं करते, जो कामनारहित होते हैं और जो क्रोध के मार्ग से नहीं जाते, जो मेरे स्वरूप से ओत-प्रोत रहते हैं, जो सिर्फ मेरी ही सेवा के लिये जीवन धारण करते हैं और जो आत्मज्ञान से संतुष्ट होते हैं, जिनकी विषयों की प्रीति नष्ट हो गयी है, जो तपरूपी तेज की राशि हैं अथवा जो सब प्रकार के ज्ञान के स्थान हैं और जो स्वयं तीर्थरूप रहते हुए अन्य तीर्थों को भी पावन करते हैं, वे मनुष्य सहज में ही मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् मद्रूप ही हो जाते हैं। हम लोगों के बीच में कोई भेदभाव नहीं रह जाता। देखो, यदि पीतल का सारा-का-सारा जंग और कालुष्य बिल्कुल समाप्त हो जाय, तो फिर सोना प्राप्त करने का कौन-सा प्रयोजन रह जाता है? इसी प्रकार जो यम-नियमों के द्वारा तपाये जाने पर तपोरूपी ज्ञान से खरे हो जाते हैं, वे यदि मेरा स्वरूप प्राप्त कर लें तो इसमें किसी को शंका ही क्यों हो?[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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