ज्ञानेश्वरी पृ. 104

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग


जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत: ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥9॥

मैं मेरा अजत्व (अजन्मा) भाव सुरक्षित रखते हुए जन्म लेता हूँ और कर्म शून्य होने पर भी कर्मों को करता हूँ। जो मनुष्य मेरे अलिप्त भावों को जानता है, उसी को परम मुक्त जानना चाहिये। इस प्रकार का मनुष्य संसार में रहकर भी कर्मों को आसक्ति से नहीं करता और शरीर धारण करने पर भी शरीर-भाव से नहीं बँधता; और जिस समय वह पंचतत्त्व में विलीन होता है, उस समय वह मेरे ही स्वरूप में आ मिलता है।[1]


वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता: ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता: ॥10॥

सामान्यतः अपने लिये अथवा दूसरों के लिये जो गतागत का शोक नहीं करते, जो कामनारहित होते हैं और जो क्रोध के मार्ग से नहीं जाते, जो मेरे स्वरूप से ओत-प्रोत रहते हैं, जो सिर्फ मेरी ही सेवा के लिये जीवन धारण करते हैं और जो आत्मज्ञान से संतुष्ट होते हैं, जिनकी विषयों की प्रीति नष्ट हो गयी है, जो तपरूपी तेज की राशि हैं अथवा जो सब प्रकार के ज्ञान के स्थान हैं और जो स्वयं तीर्थरूप रहते हुए अन्य तीर्थों को भी पावन करते हैं, वे मनुष्य सहज में ही मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् मद्‌रूप ही हो जाते हैं। हम लोगों के बीच में कोई भेदभाव नहीं रह जाता। देखो, यदि पीतल का सारा-का-सारा जंग और कालुष्य बिल्कुल समाप्त हो जाय, तो फिर सोना प्राप्त करने का कौन-सा प्रयोजन रह जाता है? इसी प्रकार जो यम-नियमों के द्वारा तपाये जाने पर तपोरूपी ज्ञान से खरे हो जाते हैं, वे यदि मेरा स्वरूप प्राप्त कर लें तो इसमें किसी को शंका ही क्यों हो?[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (58-59)
  2. (60-65)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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