श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
तब श्रीभगवान् ने कहा-“हे पाण्डुसुत! तुम तो अपने चित्त में यह ठान लिये होगे कि जिस समय विवस्वान् था उस समय मैं नहीं था; परन्तु इससे यही बात साबित होती है कि तुम इन सब बातों से सर्वथा अनजान हो। देखो, तुम्हारे और हमारे अनेक जन्म हो चुके हैं, पर तुम्हें अपने उन जन्मों का स्मरण ही नहीं है; परन्तु हे धनुर्धर! मुझे यह सब बात भली-भाँति याद है कि मैंने किस-किस समय में और कौन-कौन से अवतार धारण किये थे।[1]
इसीलिये मुझे पहले की सभी बातें अच्छी तरह से याद हैं। वैसे तो मैं अजन्मा हूँ, पर फिर भी माया के कारण जन्म धारण करता हूँ। मैं जन्म तो लेता हूँ, पर इससे मेरा मूल का निराकार अमूर्तत्त्व भंग नहीं होता। हाँ, एक बात अवश्य है कि माया के कारण मेरे आत्मस्वरूप में ऐसा भास होता है कि मैं अवतार लेता हूँ और फिर अपने धाम को चला जाता हूँ। मेरी स्वतन्त्रता में लेशमात्र की भी न्यूनता नहीं होती। अवतार लेने के साथ जो मैं कर्मों के वशीभूत दिखायी पड़ता हूँ वह भी भ्रान्ति के कारण ही। जहाँ यह भ्रान्ति मिटी, तहाँ मैं फिर स्वस्वरूप में निराकार और निगुर्ण रहता हूँ। एक ही वस्तु जो दर्पण में दो वस्तुओं के रूप में दिखलायी पड़ती है, उसका प्रमुख कारण दर्पण ही होता है। यद्यपि दर्पण में प्रतिबिम्ब ही दृष्टिगत होता है, परन्तु यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो क्या दर्पण में दृष्टिगत होने वाली वह प्रतिबिम्बरूपी दूसरी वस्तु सच्ची रहती है? इस प्रकार हे किरीटी! मैं स्वयं तो निराकार हूँ ही, पर जब मैं माया का सहारा लेता हूँ, तब कुछ कर्मों के निमित्त शरीर धारणकर अर्थात् साकार होकर आचरण करता हूँ।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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