श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
हे कुन्तीसुत! आज वही कर्मयोग मैंने तुम्हें बतला दिया। अब तुम अपने सारे संशय को त्याग दो। यह कर्मयोग का तत्त्व मेरे अन्तःकरण का एक गूढ़ रहस्य है; परन्तु उसे भी मैंने तुमसे छिपाया नहीं, क्योंकि तुम मुझे अत्यन्त ही प्रिय हो। हे धनुर्धर! तुम प्रेम की मूर्ति, भक्ति के प्राण और मित्रता के जीवन-सर्वस्व हो। अर्जुन, तुम्हारा और मेरा सम्बन्ध अत्यन्त नजदीक का है, हम युद्ध के लिये खड़े हैं इस समय तुम्हारी शंका का निवारण कैसे करूँ। फिर भी पलभर के लिये इससे अलग होकर और इस गड़बड़ से हटकर तुम्हारी सारी शंकाएँ दूर कर देना और तुम्हारे मोह का नाश कर देना नितान्त जरूरी है।”[1]
तब अर्जुन ने कहा-“हे श्रीहरि! यदि माता अपने पुत्र के साथ स्नेह करती है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? हे कृपानिधि! देखिये, इस संसार में आप ही सन्तप्त प्राणियों के लिये शीतल छाया और अनाथ जीवों के लिये माता के समान हैं। वास्तव में मेरा जन्म आपकी ही कृपा से हुआ है। हे देव! जैसे कोई स्त्री किसी पंगु पुत्र को तो पहले जन्म दे देती है और फिर आजन्म उसकी समस्त परेशानियों को झेलती रहती है, ठीक वैसे ही मेरे लिये आपको सब झंझटें सहनी पड़ती हैं। परन्तु आपकी ही बात आपके ही समक्ष मैं क्यों कहूँ? इसलिये हे देव! अब जो कुछ भी मैं पूछता हूँ, उस पर आप अच्छी तरह ध्यान दें और मैं जो कुछ भी आपसे कहूँ, उसके लिये आप अपने मन में जरा-सा भी क्रोध न करें। हे अनन्त! आपने पुरातन परम्परा की जो बात मुझे बतलायी कि आपने कर्मयोग के इस गहन रहस्य का विवस्वान् को उपदेश दिया था, सो यह बात मेरे अन्तःकरण में रत्तीभर भी नहीं समायी; क्योंकि मेरे बुजुर्ग भी यह नहीं जानते होंगे कि वह विवस्वान् कौन था। तो फिर आपने उसे कब और कहाँ उपदेश दिया था? सुनने में आता है कि वह विवस्वान् बहुत ही समय पहले हुआ था और आप श्रीकृष्ण इस समय के हैं। इसलिये आपने जो बात मुझसे अभी बतलायी है, वह मुझे असंगत जान पड़ती है; किन्तु हे देव! निःसन्देह आपके चरित्र को जानना हम लोगों के वश की बात नहीं है; इसलिये मैं यह दावे के साथ कैसे कह सकता हूँ कि यह बात एकदम आधारहीन है? अत: आपने जो विवस्वान् को इसका उपदेश किया था, उसे आप ऐसे ढंग से मुझे बतलावें कि मेरी समझ में अच्छी तरह से आ सके।”[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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