श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
देव ने पाण्डु पुत्र से कहा-“मैंने यही योग विवस्वान् सूर्य को बतलाया था; परन्तु इस बात को हुए बहुत दिन बीत गये। फिर उस विवस्वान् ने इस योग को वैवस्वत मनु को बतलाया था। मनु ने स्वयं इस योग-स्थिति को प्राप्त किया अर्थात् आचरण किया और फिर इक्ष्वाकु को इसका उपदेश किया था। यही इस योग की पुरातन परम्परा है।[1]
तदनन्तर, इस योग का ज्ञान और भी अनेक राजर्षियों को हुआ; परन्तु वर्तमान समय में इसे जानने वाला देखने में कोई आता ही नहीं। प्राणियों की अभिरुचि विषयों के चक्कर में पड़ गयी और देह-बुद्धि के मोह में जकड़ गयी। इसीलिये वे लोग इस आत्मज्ञान को भुला बैठे। आत्मबोध की आस्था (भावना) जिस बुद्धि में स्वीकारनी चाहिये थी, वो वाममार्ग में लग जाने के कारण, लोगों को विषयसुख ही आत्यन्तिक श्रेष्ठ लगने लगा और देहादि प्रपंच प्राण-सदृश प्रिय लगने लगे। नहीं तो दिगम्बर साधुओं की बस्ती में वस्त्रों का क्या काम? अथवा जन्म से अन्धे मनुष्य के लिये सूर्य की ही क्या महत्ता हो सकती है? अथवा बहरों की सभा में संगीत का सम्मान क्यों होने लगा? अथवा सियार को क्या कभी चाँदनी से प्रीति उत्पन्न हो सकती है? अथवा चन्द्रमा के उदित होने के पूर्व ही जिसकी देखने की क्षमता समाप्त हो जाती है, वह काक पक्षी चन्द्रमा को किस प्रकार पहचान सकता है? इसी प्रकार जो लोग वैराग्य की हद देखे ही नहीं और जिन्हें विवेक का नाम तक ज्ञात नहीं, वे मूर्ख मनुष्य मेरे परमात्म-स्वरूप तक किस प्रकार पहुँच सकते हैं? न जाने यह मोह किस प्रकार फैला है, किन्तु इस मोह के कारण बहुत-सा समय व्यर्थ ही व्यतीत हो गया और इस लोक से कर्मयोग का नाश हो गया।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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