जौ मन कबहुँक हरि कौं जाँचैं -सूरदास

सूरसागर

द्वितीय स्कन्ध

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राग विहाग



जौ मन कबहुँक हरि कौं जाँचैं।
आन प्रसंग-उपासन छाँङै, मन-बच-क्रम अपनैं उर साँचै।
निसि-दिन स्‍याम सुमिरि जस गावै, कल्‍पन मेटि प्रेम रस माचै।
यह ब्रत धरे लोक मैं बिचरै, सम करि गनै महामनि-काँचै।
सीत-उष्‍न, सुख-दुख नहिं मानै, हानि-लाभ कछु सोच न राँचैं।
जाइ समाइ सूर वा निधि मैं, बहुरि न उलटि जगत मैं नाचैं।।11।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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