जौ मन कबहुँक हरि कौं जाँचैं।
आन प्रसंग-उपासन छाँङै, मन-बच-क्रम अपनैं उर साँचै।
निसि-दिन स्याम सुमिरि जस गावै, कल्पन मेटि प्रेम रस माचै।
यह ब्रत धरे लोक मैं बिचरै, सम करि गनै महामनि-काँचै।
सीत-उष्न, सुख-दुख नहिं मानै, हानि-लाभ कछु सोच न राँचैं।
जाइ समाइ सूर वा निधि मैं, बहुरि न उलटि जगत मैं नाचैं।।11।।