जौ पै कृष्न हमहिं जिय भावत -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png


जौ पै कृष्न हमहिं जिय भावत।
तौ सुनि मधुप जसोदानंदन, अबही गोकुल आवत।।
जिन नैननि मोहन मुख निरख्यौ, निसि दिन रूप बिचारयौ।
तेई नैन रहत सूने गृह, प्रीति न हियौ बिदारयौ।।
जिहि तन आसन सैन सग सुख, हरि समीप रुचि मानी।
तिहिं तन विरह न छुटत सुमिरि गुन, नैकहुँ बिथा न जानी।।
जिन स्रवननि सुनि वचन मनोहर, मुरली कल मुख बाजत।
तिन स्रवननि अब सुनतिं मधुपुरी, देत सँदेसनि लाजत।।
अति प्रचड यह मदन महाभट, जाहि सबै जग जानत।
सो मद हीन दीन ह्वै बपुरी, कोपि धनुष नहिं तानत।।
सर सौरभ ससि अनिल त्रिविध गुन बैसियै प्रकृति निबाहत।
विषम बिरह निजु जानि मानि मिति, ते या तनहिं न दाहत।।
वनबिलास, व्रजवास, राससुख, देखि देखि सुचि पावत।
‘सूरदास’ बहुरौ वियोग गति, कुकवि निलज ह्वै गावत।।4026।।

Next.png

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः