जौ गिरिधर मुरली हौ पाऊँ।
तेई तान कहौ तेरी सौ कै सुरभेद अनेक उपाऊँ।।
तुम बस करी सकल ब्रजबनिता मैं बस करि हरि तुम्है लजाऊँ।
जोग गुनी विद्याधर आदिक गुन करि किन्नर कोटि रिझाऊँ।।
अनहद भेद बजाऊँ सारँग तुरग सहित रविरथ बिरमाऊँ।
अब गति मद करौ मारुत की सूरजसुता प्रवाह थकाऊँ।।
सुक-मुनीस-सनकादिक-संकर-ध्यान छेड़ाइ मोहिनी लाऊँ।
‘सूर’ कहै वृषभानुनदिनी धरि अधरनि पर अचल चलाऊँ।। 80 ।।