जो पै तुमहीं बिरद बिसारौ -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग केदारौं




जो पै तुमहीं बिरद बिसारौ
तौ कहाँ कहाँ करुनामय, कृपिन करम को मारौं!
दीन-दयाल, पतित-पावन, जस वेद बखानत चारौ।
सुनियत कथा पुरानन, गानिका, व्‍याघ, अजामिल तारौ।
राग-द्वैष, बिधि-अबिधि, असुचि-सुचि, जिहिं प्रभु जहाँ सँभारौ।
कियौ न कबहुँ विलंब कृपानिधि, सादर सोच निबारौ।
अगनित्त गुण हरि नाम तिहारैं, अजौ अपुनपौ धारौ।
सूरदास-स्‍वामी, यह जन अब करत करत स्रम हारी।।157।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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