जो जन ऊधौ मोहिं न बिसारत, तिहि न बिसारौ एक घरी।
मेटौ जनम जनम के सकट, राखौ सुख आनंद भरी।।
जो मोहि भजै भजौ मैं ताकौ, यह परिमिति मेरे पाइँ परी।
सदा सहाइ करौ वा जनकी, गुप्त हुती सो प्रगट करी।।
ज्यौं भारत भरुही के अंडा, राखे गज के घंट तरी।
‘सूरजदास’ ताहि डर काकौ, निसि वासर जौ जपत हरी।।4159।।