जीती जीती है रन बंसी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग केदारी


जीती जीती है रन बंसी।
मधुकर सूत, बदत बंदी पिक, मागध मदन प्रसंसी।।
मथ्‍यौ मान-बल-दर्प, महीपति जुवति-जुथ ग‍हि आने।
ध्‍वनि-कोदंड ब्रह्मांड भेद करि, सुर सन्‍मुख सर ताने।।
ब्रह्मादिक, सिव सनक-सनंदन, बोलत जै जै बाने।
राधा-पति सर्बस अपनौ दै, पुनि ता हाथ बिकाने।।
खग-मृग-मीन सुमार किये सब जड़ जंगम जित बेष।
छाजत छत मद मोह कवच कटि छूटे नैन निमेष।।
अपनी अपनिहिं ठकुराइति की, काढ़ति है भुव रेष।
बैठी पानि-पीठ गर्जति है, देति सबनि अवसेष।।
रबि कौं रथ लै दियौ सोम कौ, षट-दस कला समेत।
रच्‍यौ जन्‍य रस-रास राजसू, वृंदा-बिपिन-निकेत।।
दान-मान परधान प्रेम-रस, बढ़यौ माधुरी हेत।
अधिकारी गोपाल तहाँ हैं, सूर सबनि सुख देत।।1070।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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