जिसकी एक बूँद-सुषमा से प्रकृति-सुन्दरी कर श्रृंगार।
अगणित विश्व सजाती रहती संतत विविध विचित्र प्रकार॥
अतल रूप-सागर जिसमें नित उठती अतुल अनन्त तरंग।
है न्यौछावर जिसके एक-एक कण पर नित अमित अनङ्ग॥
कैसे किया सुअङ्कित उसको लघुतम पट पर सखि ने आज?
कैसे एक-एक अवयव पर सजा सकी वह सुन्दर साज?
कैसे द्रवित न हृदय हो गया? कैसे रहा धैर्य का बन्ध?
कैसे खसी न हस्त-तूलिका पाकर श्याम-रूप-सम्बन्ध?
कैसे क्षुद्र तूलिका में वह आया रूप-समुद्र महान?
मन-अतीत नित बुद्धि-अगोचर कैसे उसे सकी सखि जान?
जाग उठी सुस्मृति, उर अन्तर लगा दीखने रूप ललाम।
जो चिर अंकित था, अब प्रकटी पूर्ण मिलन-इच्छा अभिराम॥
पर, न हो सकी पूर्ण सदिच्छा, अमित यन्त्रणा बढ़ी तुरन्त।
बड़वानल अति विषम जल उठा, उठी हृदयमें हूक दुरन्त॥
हुआ युगों-सा एक-एक पल रहा न रंचक धैर्य-विवेक।
सूखा हृदय, अश्रु-दृग सूखे, एकमात्र प्रिय दर्शन-टेक॥
सहसा प्रगट हो गये प्रियतम अनुपम मधुर लिये मुसकान।
चकित-प्रहर्षित लगी देखने, उमड़ा सुख-समुद्र निर्मान॥