जितनी लाअ गुपालहि मेरो।
तितनी नाहिं बधू हौं जिनकी, अंबर हरत सबनि तन हैरी।
पति अति रोष भारि मनहीं मन, भीषम दई बचन बँधि बेरी।
हा जगदीस, द्वारिकाबासी भई अनाथ, कहति हौं टेरी।
बसन-प्रवाह बढ़यौ जब जान्यौ, साधु साधु सबहिनि मति फेरी।
सूरदास-स्वामी जस प्रगटयौ, जानी जनम-जनम की चेरी।।252।।