जा दिन तै हरि दृष्टि परे री।
ता दिन तै मेरे इन नैननि, दुख सुख सब बिसरे री।।
मोहन अंग गुपाल लाल के, प्रेमपियूष भरे री।
बसे उहाँ मुसुकानि छाँह लै, रचि रुचि भवन करे री।।
पठवति हौ मन तिनहिं मनावत निसिदिन रहत अरे री।
ज्यो ज्यौ जतन करति उलटावति त्यौ त्यौ हठत खरे री।।
पचिहारी समुझाइ ऊँच निच पुनि पुनि पाइ परे री।
सो सुख ‘सूर’ कहाँ लो बरनौ इक टक तै न टरी री।।1864।।