जाकौ हरि अंगीकार कियौ।
ताके कोटि बिधन हरि हरि कै, अभै प्रताप दियौ।
दुरबासा अँबरीष सतायौ, सो हरि-सरन गयौ।
परतिज्ञा राखी मन-मोहन फिरि तापै पठयौ।
बहुत सासना दइ प्रहलादहिं, ताहि निसंक कियौ।
निकसि खंभ तै नाथ निरंतर, निज राखि लियौ।
मृतक भए सब सखा जिवाए, बिप-जल जाइ पियौ।
सूरदास-प्रभु भक्तबछल हैं, उपमा कौं न बियौ।।38।।