जाकों दीनानाथ निवाजैं -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग सारंग



            
जाकों दीनानाथ निवाजैं।
भव-सागर मैं कवहुँ न झूकै, अभय निसाने बाजैं।
विप्र सुदामा कौं निधि दीन्‍हीं, अर्जुन रन मैं गाजै।
लंका राज बिभीषन राजैं, ध्रुव आकास बिराजैं।
मारि कंस-केसी मथुरा मैं, मेट्यौ सबै दुराजैं।
उग्रसेन-सिर छत्र धरयौ है, दानव दस दिसि भाजैं।
अंबर गहत द्रौपदी राखी, पलटि अंध-सुत लाजैं।
सूरदास प्रभु महा भक्ति तैं, जाति अजातिहिं साजैं।।36।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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