जहाँ-जहाँ सुमिरे हरि जिहिं बिधि -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग रामकली


जहाँ-जहाँ सुमिरे हरि जिहिं बिधि तहँ तैसैं उठि घाए (हो)।
दीन-बंधु हरि, भक्त-कृपानिधि, बेद-पुराननि गाए (हो)।
सुत कुबेर के मत्त-मगन भए, विषै-रस नैननि धाए (हो)।
मुनि सराप तै भए जमलतरु, तिन्ह हित आपु बँधाए (हो)।
पट कुचैल, दुरबल द्विज देखत, ताके तंदुल खाए (हो)।
संपति दै बाकि पतिनी कौं, मन अभिलाष पुराए (हो)।
जब गज गह्यौ ग्राह जल-भीतर, तब हरि कौं उर ध्याए (हो)।
गरुड़ छाँड़ि आतुर हवै घाए, सो ततकाल छुड़ाए (हो)।
कलानिधान, सकल-गन-सगर, गरु धौं कहा पढ़ाए (हो)।
तिहिं उपकार मृतक सुत जाँचे, सो जमपुर तैं ल्याए (हो)।
तुम मोसे अपराधी माधव, केतिक स्वर्ग पठाए (हो)।
सूरदास-प्रभु भक्त-बछल तुम, पावन नाम कहाए (हो)।।7।।
      

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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