जलनिधि-जलधर मन्द-मधुर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा-कृष्ण-जन्म-महोत्सव एवं जय-गान

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राग भैरव - ताल कहरवा


जलनिधि-जलधर मन्द-मधुर स्वर गाने लगे स्वसुख का गान।
हु‌ए प्रकट देवकी-‌उदर से सुन्दर मधुर स्वयं भगवान॥
उदय हु‌ए वैसे ही, जैसे षोडशकला-पूर्ण राकेश-
उगता प्राची में, न रह गया संतों को तम-पीड़ा-लेश॥
काले को जो उज्ज्वल करता, ले वह अद्भुत काला रंग।
देख सामने पुरुषों को स्वयं रह गये दम्पति दंग॥
कोमल, कमल-समान नेत्र हैं मुनि-मन-मोहन, दीर्घ, रसाल।
शङ्ख-गदा शुचि, पद्म-चक्र से शोभित चारों भुजा विशाल॥
वक्षःस्थल पर शोभित है श्रीवत्स-चिह्न अतिशय अभिराम।
गले सुशोभित कौस्तुभमणि की छिटक रही है विभा ललाम॥
नव-नीरद-घनश्याम कलेवर चमक रहा है शुचि रमणीय।
दमक रहा है सुन्दर तन पर दिव्य पीतपट अति कमनीय॥
मणि वैदूर्य अमूल्य विनिर्मित हैं किरीट, कुण्डल द्युतिमान।
कुञ्चित कुन्तल चमक रहे हैं उनसे दिनकर-किरण-समान ॥
कटि में है करधनी सुशोभित दिव्य रत्नमय, सुषमागार।
बाँहों में अंगद शोभित हैं, हाथों में कंकण श्री-सार॥
अंग-‌अंग आभरण-विभूषित, दीप्ति छा रही चारों ओर।
देख रूप वसुदेव-देव की हु‌ए अतुल आनन्द विभोर॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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