जय जय, जय जय, माघघ-बेनी -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग भैरो


  
जय जय,जय जय, माधध-बेनी।
जग हित प्रकट करी करुनामय-अगतिनि कौं गति देनी।
जानि कठिन कलिकाल कुटिल नृप, संग सजी अध-सैनी।
जनु ता लगि तरवारि त्रिविकृम, धरि करि कोप उपैनी।
मेरु मूठि , बर-बारि पाल-छिति, बहत वित्त की लेनी।
सोभित अंग तरंग त्रिसंगम, धरौ धार अति पैनी।
जा परसै जीतै जम- सैनी, जमन कपालिक, जेनी।
एकै नाम लेत सब भाजै, पीर सो भव-भय-सैनी।
जा जल-सुद्ध निरखि सम्मुख ह्वै, सुंदरि सरसिज नैनी।
सूर परस्पर करत कुलाहल, गर-सृग-पहरावैनी।।11।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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