जय-जय धुनि अमरनि नभ कीन्हौ।
धन्य-धन्य जगदीस गुसाई, अपनो करि अहि लीन्हौ।
अभय कियौ फन चरन-चिह्न धरि, जानि आपुनी दास।
जल तैं काढ़ि कृपा करि पठयौ, मेटि गरुड़ कौं त्रास।
अस्तुति करत अमर-गन बहुरे, गए आपनैं लोक।
सूर स्याम मिलि मातु-पिता कौ दूरि कियौ तनु-सोक।।579।।