जब मोहन कर गही मथानी।
परसत कर दधि, माट, नेति, चित उदधि, सैल, बासुकि भय मानी।
कबहुँक तीनि पैन भुव मापत, कबहुँक देहरि उलँधि न जानी।
कबहुँक सुर मुनि ध्यान न पावत, कबहुँ खिलावति नंद की रानी।
कबहुँक अमर-खीर नहिं भावत, कबहुँक दधि-माखन रुचि मानी।
सूरदास प्रभु की यह लीला, परति न महिमा सेष बखानी।।144।।