जब दधि बेचन जाहिं 1 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग जैतश्री


बोलत लाज नहीं तुमहिं, सबहीं भई गँवारि।
ऐसी कैसैं हरि करै, कतहिं बढ़ावतिं रारि।।
अहो जसोदा महरि, पूत की मामी पावै।
हमहिं कहा है होत, बहुत दिन मोहन जीवै।
सुत के कर्म न जानई, करै आपुनी टेक।
दस गैयनि करि को बडौ, अहिर-जाति सब एक।।
कह गैयनि की चली, कहा अब चली जाति की।
चकृत भई मैं तुम जु कहत, अनमिलत बात की।।
जैसी मोसौं कहति हौ, को सुनि कै पतियाइ।
कौन प्रकृति तुमकौं परी, मोहिं कहौ समुझाइ।।
अहो जसोदा बात, काल्हि की सुनी कि नाहीं।
बंसीबट की छाँह, गही हरि मेरी बाहीं।।
हौं सकुचनि बोली नहीं, बहु सखियनि की भीर।
गहि बहियाँ मोहिं ले चले, हंस-सुता कैं तीर।।
एरी मदमत ग्‍वालि, फिरति जोबन-मद-माती।
गोरस-बेंचनहारि, गूजरी अति इतराती।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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