जब तै सुदर बदन निहारयौ।
ता दिन तै मधुकर मन अटक्यौ, बहुत करी निकरे न निकारयौ।।
मातु, पिता, पति, बंधु, सुजन नहिं, तिनहूँ कौ कहिवौ सिर धारयौ।
रही न लोक लाज मुख निरखत, दुसह क्रोध फीकौ करी डारयौ।।
ह्वैवौ होइ सु होइ कर्मवस, अब जी कौ सब सोच निवारयौ।
दासी भई जु 'सूरदास' प्रभु, भलौ पोच अपनौ न विचारयौ।। 3564।।