जब तैं रसना राम कह्यौ।
मानौ धर्म साधि सब बैठ्यौ, पढ़िबे मैं घौं कहा रह्यौ।
प्रगट प्रताप ज्ञान-गुरु-गम तैं, दधि मथि, घृत लै, तज्यौ मह्यौ।
सार कौ सार, सकल सुख कौ दुख, हनुहमान सिव जानि गह्यौ।
नाम प्रतीति भई जा जन कौं, लै आनँद, दुख दूरि दह्यौ।
सूरदास धनि-धनि वह प्रानी, जो हरि कौ ब्रत लैं निबह्यौ।।8।।