जब जब तेरी सुरति करत।
तब तब डबडबाइ दोउ लोचन, उमँगि भरत।।
जैसै मीन कमलदल कौ चलि अधिक अरत।
पलक कपाट न होत, तबहिं तै निकसि परत।।
आँसु परत ढरिढरि उर, मुक्ता मनहु झरत।
सहज गिरा बोलत न बनत हित हेरि हरत।।
राधा नैन चकोर बिना मुख चंद्र जरत।
'सूर' स्याम तब दरस बिना नहिं धीर धरत।।2584।।