जबही रथ अक्रूर चढ़े।
तब रसना हरि नाम भाषि कै, लोचन नीर बढे।।
महरि पुत्र कहि सोर लगायौ तरु ज्यौ घरनि लुटाइ।
देखति नारि चित्र सी ठाढी, चितये कुँवर कन्हाइ।।
इतने हि मैं सुख दियौ सबनि कौ, दीन्ही अवधि बताइ।
तनक हँसे, हरि मन जुवतिन कौ, निठुर ठगौरी लाइ।।
बोलति नहीं रही सब ठाढी, स्याम ठगी ब्रजनारि।
'सूर' तुरत मधुवन पग धारे, धरनी के हितकारी।।2992।।