श्रीकृष्णांक
जन्म कर्म च मे दिव्यम
भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजी के जन्म-कर्म की दिव्यता के सम्बन्ध में कुछ लिखने के लिये भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार ने मुझसे कहा। भगवान के जन्म-कर्म की दिव्यता एक अलौकिक और रहस्यमय विषय है, इसके तत्त्व को वास्तव में तो भगवान ही जानते हैं अथवा यत्किञ्चित् उनके वे भक्त जानते हैं, जिनको उनकी दिव्य-मूर्ति का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ हो; परन्तु वे भी जैसा जानते हैं कदाचित वैसा कह नहीं सकते। जब एक साधारण विषय को मनुष्य जिस प्रकार अनुभव करता है उस प्रकार नहीं कह सकता, तब ऐसे अलौकिक विषय को कोई कैसे कह सकता है ? भगवान के जन्म-कर्म तथा स्वरूप की दिव्यता के विषय में विस्तार पूर्वक सूक्ष्म विवेचनरूप से शास्त्रों में प्रायः स्पष्ट उल्लेख भी नहीं मिलता, जिसके आधार से मनुष्य उस विषय में कुछ विशेष समझा सके, इस स्थिति में यद्यपि इस विषय पर कुछ लिखने में मैं अपने को असमर्थ मानता हूँ, तथापि भाई हनुमान प्रसाद के आग्रह के कारण अपने मन के कुछ भावों को यत्किञ्चित् प्रकट करता हूँ। इस अवस्था में कुछ अनुचित लिखा जाय तो भक्तजन बालक समझकर मुझ पर क्षमा करेंगे। भगवान का जन्म दिव्य है, अलौकिक है, अद्भुत है। इसकी दिव्यता को जानने वाला करोड़ों मनुष्यों में शायद ही कोई एक होगा। जो इसकी दिव्यता को जान पाता है वह मुक्त हो जाता है। भगवान् ने गीता ‘अ. 4/9 में कहा है- हे अर्जुन ! मेरा वह जन्म और कर्म दिव्य अलौकिक है, इस प्रकार जो पुरुष तत्त्व को जानता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है। इस रहस्य को नहीं जानने वाले लोग कहा करते हैं कि निराकार सच्चिदानन्दघन परमात्मा का साकार रूप में प्रकट होना न तो सम्भव है और न युक्तिसंगत ही है। वे यह भी शंका करते हैं कि सर्वव्यापक, सर्वत्र समभाव से स्थित, सर्वशक्तिमान् भगवान पूर्णरूप से एक देश में कैसे प्रकट हो सकते हैं ? और भी अनेक प्रकार की शंकाएँ की जाती हैं। वास्तव में ऐसी शंकाओं का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जब मनुष्य-जीवन में इस लोक की किसी अद्भुत बात के सम्बन्ध में भी बिना प्रत्यक्ष ज्ञान हुए उस पर पूरा विश्वास नहीं होता तब भगवान के विषय में विश्वास न होना आश्चर्य अथवा असम्भव नहीं कहा जा सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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