जदुपति सखा ऊधौ जानि।
लगे मन मन यहै सोचन, भली नहिं यह बानि।।
अंस भुज धरि होत ठाढ़ौ, निठुर जैसौ काठ।
संग यह नहिं बनत नीकौ, होइ कैसैहु साँठ।।
जौ कहौ तौ करै क्यौ यह, निंदिहै अरु मोहिं।
देखिबे कौ परम सुदर, रहत नैननि जोहि।।
कनक कलस अपान जैसें, तैसोई यह रूप।
‘सूर’ कैसैहु प्रेम पावै, तवहि होइ सुरूप।। 3412।।