चौर्यविशङ्कित-नेत्र’ देखते बारंबार द्वारकी ओर।
आ न जाय मैया, मारेगी मुझे समझ अपराधी-चोर॥
’भय-विह्वल’ हो भाग चले हरि, सहज तीव्र गति में कर वृद्धि।
’पकड़ लिया’ जाकर मैया ने, असफल हुई ईश्वरी-सिद्धि॥
पकड़ हाथ, मैयाने छड़ी दिखा, डाँटा अति, कहा-’अशान्त’।
वानरसखा ! अदान्तात्मन् ! तू हुआ ’धृष्ट’ अति ही दुर्द्दान्त॥
आज मिटा दूँगी मैं तेरा सब चतुराई का ’अभिमान’।
’रोने लगे’ आँख मल-मलकर एक हाथ से श्रीभगवान॥
पर जिनकी शरणागति से ही कट जाते तुरंत बन्धन।
बरबस वही बँधे ऊखल कमनीय कर रहे मधु-क्रन्दन॥
शुद्ध सच्चिदानन्द, सनातन, नित्यमुक्त जो परम स्वतन्त्र।
कर बन्धन स्वीकार उदरमें, हुए यशोदाके परतन्त्र॥