चोखा मेला

चोखा मेला महार जाति के थे। मंगलवेढ़ा नामक स्‍थान में रहते थे। बस्‍ती से मरे हुए जानवर उठा ले जाना ही इनका धंधा था। बचपन से ही ये बड़े सरल और धर्मभीरु थे। श्रीविट्ठल जी के दर्शनों के लिये बीच-बीच में ये पण्‍ढरपुर जाया करते थे। पण्‍ढरपुर में इन्‍होंने नामदेव के कीर्तन सुने। यहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। नामदेव जी को इन्‍होंने अपना गुरु माना।

परिचय

चोखा जी ज्ञानेश्वर महाराज की संतमण्‍डली में से एक थे। इनकी भक्ति पर सभी मुग्‍ध थे। निरन्‍तर भगवन्‍नाम चिन्तन करने वाले चोखा जी भगवन्‍नाम की महिमा गाते हुए एक जगह कहते हैं कि- "इस नाम के प्रताप से मेरा संशय नष्‍ट हो गया। इस देह में ही भगवान से भेंट हो गयी।" इनकी पत्‍नी सोयराबाई और बहन निर्मलाबाई भी बड़ी भक्तिमती थीं। सोयराबाई की प्रसूति में सारी सेवा स्‍वयं भगवान ने की, ऐसा कहा गया है। इनके बेटे का नाम कर्म मेला था, वह भी भक्त था। बंका महार नामक भक्त इनके साले थे।

भगवान विट्ठल के भक्त

चोखा जी भगवान के बड़े लाडले भक्त माने जाते हैं। अपने सब काम करते हुए चोखा मेला भगवन्‍नाम में रत रहते थे। इन पर बड़े-बड़े संकट आये, पर भगवन्‍नाम के प्रताप से ये संकटों के ऊपर ही उठते गये। पण्‍ढरपुर के श्रीविट्ठल मन्दिर का महाद्वार इन्‍हें अपना परम आश्रय जान पड़ता था और भगवद्भक्‍तों के चरणों की धूल अपना महाभाग्‍य। उस धूल में ये लोटा करते थे। इनकी अनन्‍य भक्ति से भगवान इनके हो गये।

एक बार श्रीविट्ठल इन्‍हें मन्दिर के भीतर लिवा लाये और अपने दिव्‍य दर्शन देकर कृतार्थ किया। अपने गले का रत्‍नहार और तुलसी-माला भगवान ने इनके गले में डाल दी। पुजारी जागे, जो अब तक सोये हुए थे। "चोखा, एक महार, बेखटके घुसा चला आया मन्दिर के भीतर। इसकी यह हिम्‍मत और भगवान के गले का रत्‍न-हार इसके गले में? इसने ठाकुर जी को भ्रष्‍ट कर दिया और रत्‍नहार चुरा लिया।" यह कहकर पुजारियों ने उसे बेतरह पीटा, रत्‍नहार छीन लिया और धक्‍के देकर बाहर निकाल दिया। इस प्रसंग पर संत जनाबाई ने एक अभंग में कहा है- "चोखा मेला की ऐसी करनी कि भगवान भी उसके ऋणी हो गये। जाति तो इसकी हीन है, पर सच्‍ची भक्ति में तो यही लीन है। इसने ठाकुर जी को भ्रष्‍ट किया, यह सुनकर तो यह जनी हंसने और गाने लगती है। चोखा मेला ही तो एक अनामिक भक्त है, जो भक्‍तराज कहाने योग्‍य है। चोखा मेला वह भक्त है, जिसने भगवान को मोह लिया। चोखा मेला के लिये स्‍वयं जगत्‍पति मरे हुए जानवर ढोने लगे।"

देहान्त

मंगलवेढ़ा में एक बार गांव की प्राचीर की मरम्‍मत हो रही थी। उस काम में चोखा मेला भी लगे थे। एकाएक प्राचीर ढह गयी, कई महार दबकर मर गये, उसी में (सन 1338 ई.) चोखा जी का भी देहान्त हो गया। भक्तों ने चोखा जी की अस्थियां ढूँढीं, नामदेव भी साथ थे। इनकी अस्थियों की पहचान यह मानी गयी कि जिस अस्थि में से विट्ठल-ध्‍वनि निकले, उसी को चोखा जी की अस्थि जानें। इन अस्थियों को नामदेव जी पण्‍ढरपुर ले आये और मन्दिर के महाद्वार पर वे गाड़ी गयीं और उन पर समाधि बनी। जिनकी अस्थियों में से भी विट्ठल नाम निकल रहा था, उन चोखा जी का सब भक्तों ने जय-जयकार किया।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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