श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी22. विद्याव्यासंगी निमाई
यह सुनकर निमाई बड़े जोरों से हँसे और उन्हें स्पर्श करते हुए बोले- ‘बस, इस छोटी-सी बात के ही लिये आप इतना अनुताप कर रहे हैं। भला, यह भी कोई बात है, यह तो साधारण-सी पोथी है, मैं आपकी प्रसन्नता के निमित्त जलती अग्नि में भी कूदकर इन प्राणों को स्वाहा कर सकता हूँ, फिर यह तो बात ही क्या है? इस पुस्तक ने आपको इतना कष्ट पहुँचाया, तो इसे मैं अभी नष्ट किये देता हूँ।’ इतना कहते-कहते निमाई ने अपनी बड़े परिश्रम से हस्तलिखित पोथी को गंगा जी के प्रवाह में फेंक दिया। जाह्नवी के तीक्ष्ण प्रवाह की हिलोरों में पुस्तक के पन्ने इधर-उधर नाचने लगे, मानो निमाई के त्याग और प्रेम के गीत गा-गाकर वे आनन्द में थिरक रहे हों। रघुनाथ ने निमाई को गले से लगाया और प्रेम के कारण रूँधे हुए कण्ठ से बोले- ‘भैया निमाई! ऐसा लोकोत्तर दुस्साध्य कार्य तुम्हीं कर सकते हो। इतनी भारी लोकैषणा को तृणवत समझकर उसका तिरस्कार कर देना तुम्हारे-जैसे ही महापुरुषों का काम है। हम तो कीर्ति और प्रतिष्ठा के कीड़े हैं। हमारी पुस्तक की अपेक्षा तुम्हारे इस त्याग की संसार में लाखों गुनी ख्याति होगी और आगे के लोग इस त्याग के द्वारा प्रेम का महत्त्व समझ सकेंगे।’ इस प्रकार की बातें करते हुए दोनों मित्र अपने-अपने घर लौट आये। उसी दिन से निमाई का न्याय पढ़ना ही नहीं छूटा, किन्तु उनका पाठशाला जाना ही छूट गया। अब उन्होंने ऐसी विद्या को पढ़ना एकदम त्याग दिया। घर पर पिता की और ज्येष्ठ भ्राता की बहुत-सी पुस्तकें थीं, वे उन्हीं का स्वयं अध्ययन करने लगे। |