श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी176. महाप्रभु के वृन्दावनस्थ छ: गोस्वामिगण
रूप जी ने वह दुग्ध पीया। उसमें अमृत से भी बढ़कर स्वाद निकला। तब तो वे समझ गये कि ‘सांवरे रंग का छोकरा वही छलिया वृन्दावन वासी है, वह अपने राज्य में किसी को भूख नहीं देख सकता।’ आश्चर्य की बात तो यह थी, जिस पात्र में वह छोकरा दुग्ध दे गया था, वह दिव्य पात्र पता नहीं अपने-आप ही कहाँ चला गया। इस समाचार को सुनकर श्रीसनातन जी दौड़े आये और उन्हें आलिंगन करके कहने लगे– ‘भैया ! यह मनमोहन बडा सुकुमार है, इसे कष्ट मत दिया करो। तुम स्वयं ही व्रजवासियों के घरों से टुकड़े माँग लाया करो।’ उस दिन से श्रीरूपजी मधुकरी भिक्षा नित्यप्रति करने जाने लगे। प्रात:काल ये उठकर उसी स्थान पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा– ‘एक गौ वहाँ खड़ी है और उसके स्तनों में आप से आप ही दूध बहकर एक छिद्र में होकर नीचे जा रहा है।’ तब तो उनके आनन्द का ठिकाना नहीं रहा। ये उसी समय उस स्थान को खुदवाने लगे। उसमें से गोविन्द देव जी की मनमोहिनी मूर्ति निकली, उसे लेकर ये पूजा करने लगे। कालान्तर में जयपुर के महाराज मानसिंह जी ने गोविन्ददेव जी का लाल पत्थरों का एक बड़ा ही भव्य और विशाल मन्दिर बनवा दिया जो अद्यावधि श्रीवृन्दावन की शोभा बढ़ा रहा है। औरंगजेब के आक्रमण के भय से जयपुर के महाराज पीछे से यहाँ की श्रीमूर्ति को अपने यहाँ ले गये थे। पीछे फिर ‘नये गोविन्ददेव जी’ का नया मन्दिर बना, जिसमें गोविन्ददेव जी के साथ ही अगल-बगल में श्री चैतन्य देव और श्रीनित्यानन्द जी के विग्रह भी पीछे से स्थापित किये गये, जो अब भी विद्यमान हैं। जब श्री रूप जी नन्द ग्राम में निवास करते थे, तब श्री सनातन जी एक दिन उनके स्थान पर उनसे मिलने गये। इन्होंने अपने अग्रज को देखकर उनको अभिवादन किया और बैठने के लिये सुन्दर-सा आसन दिया। श्री रूप जी अपने भाई के लिये भोजन बनाने लगे। उन्होंने प्रत्यक्ष देखा कि भोजन का सभी सामान प्यारी जी ही जुटा रही हैं, सनातन जी को इससे बड़ा क्षोभ हुआ। वे चुपचाप बैठे देखते रहे। जब भोजन बनकर तैयार हो गया तो श्री रूप जी ने उसे भगवान के अर्पण किया, भगवान प्यारी जी के साथ प्रत्यक्ष होकर भोजन करने लगे। उनका जो उच्छिष्ट महाप्रसाद बचा उसका उन्होंने श्री सनातन जी को भोजन कराया। उसमें अमृत से भी बढ़कर दिव्य स्वाद था। |