श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी175. ठाकुर नरोत्तमदास जी
नरोत्तम ठाकुर का प्रभाव उन दिनों बहुत ही अधिक था, बड़े-बड़े राजे-महाराजे इनके मंत्र-शिष्य थे। बड़े पण्डित इन्हें नि:संकोच भाव से साष्टांग प्रणाम करते। ये बँगला भाषा के सुकवि भी थे। इन्होंने गौरप्रेम में उन्मत्त होकर हजारों पदों की रचना की है। इनकी पदावलियों का वैष्णवसमाज में बड़ा आदर है। इन्होंने परमायु प्राप्त की थी। अन्त समय ये गंगा जी के किनारे गम्भीरा नामक ग्राम में अपने एक शिष्य गंगा नारायण पण्डित के यहाँ चले गये। कार्तिक की कृष्णा पंचमी का दिन था। प्रात:काल ठाकुर महाशय अपने प्रिय शिष्य गंगानारायण पण्डित तथा रामकृष्ण के साथ गंगा-स्नान के निमित्त गये। वे कमर तक जल में चले गये और अपने शिष्यों से कहा– ‘हमारे शरीर को तो थोड़ा मलो।’ शिष्यों ने गुरुदेव की आज्ञा का पालन किया। देखते ही देखते ठाकुर महाशय का निर्जीव शरीर गंगामाता के सुशीतल जल में गिरकर अठखेलियां करने लगा। नरोत्तम ठाकुर इस असार संसार को त्यागकर अपने सत्य और नित्य लोक को चले गये। वैष्णवों के हाहाकार से गंगा का किनारा गूँजने लगा। गंगामाता का हृदय भी अपने लाडले पुत्र के शोक में उमड़ने लगा और वह भी अपनी मर्यादा को छोड़कर बढ़ने लगीं। |