श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी175. ठाकुर नरोत्तमदास जी
श्री लोकनाथ गोस्वामी प्रात:काल उठकर यमुना जी में स्नान करने जाते और दिन भर अपनी कुंजकुटी में बैठे-बैठे हरिनाम-जप किया करते। नरोत्तमदास छिपकर उनकी सेवा करने लगे। वे जहाँ शौच जाते, उस शौच को उठाकर दूर फेंक आते। जिस कंकरीले, पथरीले और कण्टकाकीर्ण रास्ते से वे यमुना स्नान करने जाते उस रास्ते को खूब साफ करते। उसके कांटेदार वृक्षों को काटकर दूसर ओर फेंक देते, वहाँ सुन्दर बालुका बिदा देते। कुंज को बांध देते। उनके हाथ धोने को नरम-सी मिट्टी लाकर रख देते। दोपहर को उनके लिये भिक्षा लाकर चुपके से रख जाते। सारांश यह कि जितनी वे कर सकते थे और जो भी उनके सुख का उपाय सूझता उसे ही सदा करते रहते। इस प्रकार उन्हें गुप्त रीति से सेवा करते हुए बारह-तेरह महीने बीत गये। जब सब बातें गोस्वामी जी को विदित हो गयीं तो उनका हृदय भर आया। अब वे अपनी प्रतिज्ञा को एकदम भूल गये, उन्होंने राजकुमार नरोत्तम को हृदय से लगा लिया और उन्हें मंत्र दीक्षा देने के लिये उद्यत हो गये। बात की बात में यह समाचार सम्पूर्ण वैष्णव समाज में फैल गया। सभी आकर नरोत्तमदास जी के भाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। दीक्षा तिथि श्रावण की पूर्णिमा निश्चित हुई, उस दिन सैकड़ों विरक्त भक्त श्रीलोकनाथ गोस्वामी के आश्रम पर एकत्रित हो गये। जीवगोस्वामी ने माला पहनाकर नरोत्तमदास जी को गुरु के चरणों में भेजा। गुरु ने पहले उनसे कहा– ‘जीवनभर अविवाहित रहना होगा। सांसारिक सुखों को एकदम तिलांजलि देनी होगी। मांस-मछली जीवन में कभी न खानी होगी’। नतमस्तक होकर नरोत्तमदास जी ने सभी बातें स्वीकार कीं। तब गोस्वामी जी ने इन्हें विधिवत् दीक्षा दी। नरोत्तम ठाकुर का अब पुनर्जन्म हो गया। उन्होंने श्रद्धा-भक्ति के सहित सभी उपस्थित वैष्णवों की चरणवन्दना की। गुरु देव की पदधूलि मस्तक पर चढ़ायी और वे उन्हीं की आज्ञा से श्री जीवगोस्वामी के समीप रहकर भक्तिशास्त्र की शिखा प्राप्त करते रहे। |