श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी174. श्री श्री निवासाचार्य जी
वनविष्णुपुर के राजा का उद्धार करके फिर ये जाजिग्राम में अपनी माता के दर्शनों के लिये आये। बहुत दिनों पश्चात अपने प्यारे पुत्र को पाकर स्नेहमयी माता की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा, वह प्रेम में गद्गद कण्ठ से रुदन करने लगी। आचार्य श्री निवास अब वहीं रहकर भक्तिमार्ग का प्रचार करने लगे। उनकी वाणी में आकर्षण था, चेहरे पर तेज था, सभी वैष्णव इनका अत्यधिक आदर करते थे। वैष्णवसमाज के ये सम्माननीय अग्रणी समझे जाते थे। उनचास वर्ष की अवस्था में इन्होंने अपना पहला विवाह किया और कुछ दिनों बाद दूसरा विवाह भी कर लिया। इस प्रकार दो विवाह करने पर भी ये विरक्तों की ही भाँति जीवन बिताने लगे। बीच में ये एक बार पुन: अपने गुरुदेव के दर्शनों के निमित्त वृन्दावन पधारे थे, तब तक इनके गुरु श्री गोपाल भट्ट का वैकुण्ठवास हो चुका था। कुद दिन वृन्दावन रहकर ये पुन: गौड़देश में आकर प्रचार कार्य करने लगे। वनविष्णुपुर के राजा ने इनके रहने के लिये अपने यहाँ एक पृथक भवन बनवा दिया था। ये कभी-कभी जाकर वहाँ भी रहते थे। अन्त में आप अपनी अवस्था का अन्त समझकर श्री वृन्दावनधाम को चले गये और वहाँ से लौटकर फिर गौड़देश में नहीं आये। उनका पुण्यमय अलौकिक शरीर वृन्दावन भूमि के पावन कणों के साथ एकीभूत हो गया। वे वैष्णवों के परम आदरणीय आचार्य अपनी अनुपम भक्ति और त्यागमयी वृत्ति के द्वारा प्रवृत्तिपक्ष वाले वैष्णवों के लिये एक परम आदर्श उपस्थित कर गये। |