श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी173. श्रीमती विष्णुप्रिया देवी
फाल्गुनी पूर्णिमा थी, चैतन्यदेव के जन्म का दिवस था। विष्णुप्रिया जी की अधीरता आज अन्य दिनों की अपेक्षा अत्यधिक बढ़ गयी थी। वे पगली की तरह हा प्राणनाथ ! हा हृदयरमण ! हा जीवनसर्वस्व कहकर लम्बी-लम्बी सांसें छोड़ती थीं। कांचना उनकी दशा देखकर चैतन्य–चरित्र सुना-सुनाकर सान्त्वना देने लगी किन्तु आज वे शान्त होती ही नहीं थीं, थोड़ी देर के पश्चात् उन्होंने कहा– ‘कांचने ! तू यादव को तो बुला ला, आज मैं उनकी मूर्ति के भीतर से दर्शन करना चाहती हूँ।’ कांचना ने उसी समय आज्ञा का पालन किया। वह जल्दी से यादवाचार्य गोस्वामी को बुला लायी। आचार्य ने मन्दिर के कपाट खोले। लंबी-लंबी सांस लेती हुई वस्त्र से शरीर ढककर विष्णुप्रिया जी ने मन्दिर में प्रवेश किया और थोड़ी देर एकान्त में रहने की इच्छा से किवाड़ बंद करा दिये। यादवाचार्य ने किवाड़ बंद कर दिये। कांचाना द्वार पर खड़ी रही। जब बहुत देर हो गयी तब कांचना ने व्यग्रता के साथ आचार्य से किवाड़ खोलने को कहा। आचार्य ने ड़रते-ड़रते किवाड़ खोले। बस, अब वहाँ क्या था, श्री विष्णुप्रिया जी तो अपने पति के साथ एकीभूत हो गयीं। उसके पश्चात फिर किसी को श्री विष्णुप्रिया जी के इस भौतिक शरीर के दर्शन नहीं हुए। मन्दिर को शून्य देखकर कांचना चीत्कार मारकर बेहोश होकर गिर पड़ी, सभी भक्त हाहाकार करने लगे। हा गौर ! हा विष्णुप्रिये ! की करुणा भरी ध्वनि से दिशा-विदिशाएं भर गयीं। भक्तों के करुणाक्रन्दन से आकाश मण्डल गूँजने लगा। |