श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी173. श्रीमती विष्णुप्रिया देवी
महाप्रभु संन्यास लेकर गृहत्यागी वैरागी बन गये, उससे उस पतिप्राणा प्रिया जी को कितना अधिक क्लेश हुआ होगा, यह विषय अवर्णनीय है। मनुष्य की शक्ति के बाहर की बात है। एक बार वृन्दावन जाते समय केवल विष्णुप्रिया जी की ही तीव्र विरहवेदना को शान्त करने के निमित्त क्षणभर के लिये प्रभु अपने पुराने घर पर पधारे थे। उस समय विष्णुप्रिया जी ने अपने संन्यासी पति के पादपद्मों में प्रणत होकर उनसे जीवनालम्बन के लिये किसी चिह्न की याचना की थी। दयामय प्रभु ने अपने पादपद्मों की पुनीत पादुकाएं उसी समय प्रिया जी को प्रदान की थीं और उन्हीं के द्वारा जीवन धारण करते रहने का उपदेश किया था। पति की पादुकाओं को पाकर पतिपरायणा प्रिया जी को परम प्रसन्नता हुई और उन्हीं को अपने जीवन का सहारा बनाकर वे इस पाँचभौतिक शरीर को टिकाये रहीं। उनका मन सदा नीलाचल के एक निभृत के स्थान में किन्हीं अरुण रंग वाले दो चरणों के बीच में भ्रमण करता रहता। शरीर यहाँ नवद्वीप में रहता, उसके द्वारा वे अपनी वृद्धा सास की सदा सेवा करती रहतीं। शचीमाता के जीवन का एकमात्र अवलम्बन अपनी प्यारी पुत्र वधू का कमल के समान म्लान मुख ही था। माता उस म्लान मुख को विकसित और प्रफुल्लित करने के लिये भाँति-भाँति की चेष्टाएँ करतीं। पुत्र वधू के सुवर्ण के समान शरीर को सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से सजातीं। प्रभु के भेजे हुए जगन्नाथ जी के बहुत ही मूल्यवान पट्टवस्त्र को वे उन्हें पहनातीं तथा और विविध प्रकार से उन्हें प्रसन्न रखने की चेष्टा करतीं। किन्तु विष्णुप्रिया जी की प्रसन्नता तो पुरी के गम्भीरा मन्दिर के किसी कोने में थिरक रही है, वह नवद्वीप में कैसे आ जाये। शरीर तो उसके एक ही है इसीलिये इन वस्त्राभूषणों से विष्णुप्रिया जी को अणुमात्र भी प्रसन्नता न होती। वे अपनी वृद्धा सास की आज्ञा को उल्लंघन नहीं करना चाहती थीं। प्रभु के प्रेषित प्रसादी पट्टवस्त्र का अपमान न हो, इस भय से वे उस मूल्यवान वस्त्र को भी धारण कर लेतीं और आभूषणों को भी पहन लेतीं किन्तु उन्हें पहनकर वे बाहर नहीं जाती थीं। |