श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी171. समुद्रपतन और मृत्युदशा
इधर प्रभु को स्थान पर न देखकर भक्तों को सन्देह हुआ कि प्रभु कहाँ चले गये। स्वरूप गोस्वामी, गोविन्द, जगदानन्द, वक्रेश्वर, रघुनाथदास, शंकर आदि सभी भक्तों को साथ व्याकुलता के साथ प्रभु की खोज में चले। श्रीजगन्नाथ जी के मन्दिर में सिंहद्वार से लेकर उन्होंने तिल-तिलभर जगह को खोज डाला। सभी के साथ वे जगन्नाथवल्लभ नामक उद्यान में गये वहाँ भी प्रभु का कोई पता नहीं। वहाँ से निराश होकर वे गुण्टिचा मन्दिर में गये। सुन्दरचल में उन्होंने इन्द्रद्युम्नसरोवर, समीप के सभी बगीचे तथा मन्दिर खोज डाले। सभी को परम आश्चर्य हुआ कि प्रभु गये भी तो कहाँ गये। इस प्रकार उन्हें जब कहीं भी प्रभु का पता नहीं चला तब वे निराश होकर फिर पुरी में लौट आये। इस प्रकार प्रभु की खोज करते-करते उन्हें सम्पूर्ण रात्रि बीत गयी। प्रात:काल के समय स्वरूप गोस्वामी ने कहा– ‘अब चलो, समुद्र के किनारे प्रभु की खोज करे, वहाँ प्रभु का अवश्य ही पता लग जायगा।’ यह कहकर वे भक्तों को साथ लेकर समुद्र के किनारे-किनारे चल पड़े। इधर महाप्रभु रात्रिभर जल में उछलते और डूबते रहे। उसी समय एक मल्लाह वहाँ जाल डालकर मछली मार रहा था, महाप्रभु का मृत्यु–अवस्था को प्राप्त वह विकृत शरीर उस मल्लाह के जाल में फँस गया। उसने बड़ा भारी मच्छ समझकर उसे किनारे पर खींच लिया। उसने जब देखा कि यह मच्छ नहीं कोई मुर्दा है, तो उठाकर प्रभु को किनारे पर फेंक दिया। बस, महाप्रभु के अंग का स्पर्श करना था कि वह मल्लाह आनन्द से उन्मत्त होकर नृत्य करने लगा। प्रभु के श्रीअंग के स्पर्शमात्र से ही उसके शरीर में सभी सात्त्विक भाव आप से आप ही उदित हो उठे। वह कभी तो प्रेम में विह्वल होकर हँसने लगता, कभी रोने लगता, कभी गाने लगता और कभी नाचने लगता। वह भयभीत हुआ वहाँ से दौडने लगा। उसे भ्रम हो गया कि मेरे शरीर में भूत ने प्रवेश किया है, इसी भय से वह भागता-भागता आ रहा था कि इतने में ये भक्त भी वहाँ पहुँच गये। उसकी ऐसी दशा देखकर स्वरूप गोस्वामी ने उससे पूछा– ‘क्यों भाई ! तुमन यहाँ किसी आदमी को देखा है, तुम इतने डर क्यों रहे हो? अपने भय का कारण तो हमें बताओ।’ |