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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
169. शारदीय निशीथ में दिव्य गन्ध का अनुसरण
अहा ! प्यारे के शरीर की दिव्य गन्ध कैसी मनोहारिणी होगी, इसे तो कोई रतिसुख की प्रवीणा नायिका ही समझ सकती है, हम अरसिकों का उसमें प्रवेश कहाँ? हाय रे ! प्यारे के शरीर की दिव्य गन्ध घोर मादकता पैदा करने वाली है, जैसे मद्यपीकी आँख से ओझल बहुत ही उत्तम गन्धयुक्त सुरा रखी हो, किन्तु वह उसे दीखती न हो। जिस प्रकार वह उस आसव के लिये विकल होकर तड़पता है, उसी प्रकार प्रभु उस गन्ध को सूँघकर तड़प रहे थे। उस गन्ध की उन्मादकता का वर्णन कविराज गोस्वामी के शब्दों में सुनिये–
सेहे गन्ध वश नासा, सदा करने गन्धेर आशा।
कभू पाय कभू ना पाय।।
पाइले पिया पेट भरे, पिड. पिड. तवू करे।
ना पाइल तृष्णाय मरिजाय।।
मदन मोहन नाट, पसारि चांदेर हाट।
जगन्नारी-ग्राहक लोभाय।।
विना-मूल्य देय गन्ध, गन्ध दिया करे अन्ध।
धर याइते पथ नाहि पाय।।
एइ मत गौरहरि, गन्धे कैल मन चुरि।
भृंग प्राय इति उति धाय।।
जाय वृक्ष लता पाशे, कृष्ण-स्फुरे सेइ आशे।
गन्ध न पाय, गन्ध मात्र पाय।।
श्रीकृष्ण के अंग की उस दिव्य गन्ध के वश में नासिका हो गयी है, वह सदा उसी गन्ध की आशा करती रहती है। कभी तो उस गन्ध को पा जाती है और कभी नहीं भी पाती है। जब पा लेती है तब पेट भरकर खूब पीती है और फिर भी ‘पीऊँ और पीऊँ’ इसी प्रकार कहती रहती है। नहीं पाती तो प्यास से मर जाती है। इस नटवर मदनमोहन ने रूप की हाट लगा रखी है। ग्राहकरूपी जो जगत की स्त्रियां हैं उन्हें लुभाता है। यह ऐसा विचित्र व्यापारी है कि बिना ही मूल्य वैसे ही उस दिव्य गन्ध को दे देता है और गन्ध को देकर अन्धा बना देता है। जिससे वे बेचारी स्त्रियों अपने घर का रास्ता भूल जाती हैं। इस प्रकार गन्ध के द्वारा जिनका मन चुराया गया है, ऐसे गौरहरि भ्रमर की भाँति इधर-उधर दौड रहे थे। वे वृक्ष और लताओं के समीप जाते हैं कि कहीं श्रीकृष्ण मिल जायँ किन्तु वहाँ श्रीकृष्ण नहीं मिलते, केवल उनके शरीर की दिव्य गन्ध ही मिलती हैं।
इस प्रकार श्रीकृष्ण की गंध के पीछे घूमते-घूमते सम्पूर्ण रात्रि व्यतीत हो गयी। निशा अपने प्राणनाथ के वियोगदु:ख के स्मरण से कुछ म्लान-सी हो गयी। उसके मुख का तेज फीका पडने लगा। भगवान भुवनभास्कर के आगमन के भय से निशानाथ भी धीरे-धीरे अस्ताचल की ओर जाने लगे। स्वरूप गोस्वामी और राय रामानन्द प्रभु को उनके निवास स्थान पर ले गये।
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