श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी169. शारदीय निशीथ में दिव्य गन्ध का अनुसरण
तच्छैशवं त्रिभुवनाद्भुतमित्यवेहि हे प्यारे, मुरलीविहारी ! तुम्हारा शैशवावस्था का मनोहर, माधुर्य-त्रिभुवनविख्यात है। संसार में उसकी मधुरिमा सर्वत्र व्याप्त है, उससे प्यारी वस्तु कोई विश्व में है ही नहीं और मेरी चपलता, चंचलता, उच्छ्रंखलता तुम पर विदित ही है। तुम ही मेरी चपलता से पूर्णरीत्या परिचित हो। बस मेरे और तुम्हारे सिवा तीसरा कोई उसे नहीं जानता। प्यारे ! बस, एक ही अभिलाषा है, इसी अभिलाषा से अभी तक इन प्राणों को धारण किये हुए हूँ। वह यह कि जिस मनोहर मुखकमल को देखकर व्रजवधू भूली-सी, भटकी-सी, सर्वस्व गंवाई-सी बन जाती हैं, उसी कमलमुख को अपनी दोनों आँखें फाड-फाड़कर एकान्त में देखना चाहती हूँ। हृदयरमण ! क्या कभी देख सकूँगी? प्राणवल्लभ ! क्या कभी ऐसा सुयोग प्राप्त हो सकेगा? बस, इसी प्रकार प्रेम-प्रलाप करते हुए प्रभु जगन्नाथवल्लभ नामक उद्यान में परिभ्रमण कर रहे थे। वे प्रत्येक वृक्ष को आलिंगन करते, उससे अपने प्यारे का पता पूछते और फिर आगे बढ़ जाते। प्रेम से लताओं की भाँति वृक्षों से लिपट जाते, कभी मूर्च्छित होकर गिर पड़ते, कभी फिर उठकर उसी ओर दौडने लगते। उसी समय वे क्या देखते हैं कि अशोक के वृक्ष के नीचे खडे होकर वे ही मुरलीमनोहर अपनी मदमाती मुरली की मन्द-मन्द मुस्कान के साथ बजा रहे हैं। वे मुरली में ही कोई सुन्दर-सा मनोहारी गीत गा रहे हैं, न उनके साथ कोई सखा है, न पास में कोई गोपिका ही। अकेले ही वे अपने स्वाभाविक टेढ़ेपन से ललित त्रिभंगी गति से खड़े हैं। बांस की वह पूर्वजन्म की परम तपस्विनी मुरली अरुण रंग के अधरों का धीरे-धीरे अमृत पान कर रही है। महाप्रभु उसे मनोहर मूर्ति को देखकर उसी की ओर दौडे। प्यारे को आलिंगनदान देने के लिये वे शीघ्रता से बढ़े। हा सर्वनाश ! प्रलय हो गया ! प्यारा तो गायब ! अब उसका कुछ भी पता नहीं ! महाप्रभु वहीं मूर्च्छित होकर गिर पड़े। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कृष्णकर्णामृत श्लोक 32