श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी166. श्री कृष्णान्वेषण
इस पद को सुनते ही प्रभु के सभी अंग-प्रत्यंग फड़कने लगे। वे सिर हिलाते हुए कहने लगे– ‘अहा, विहरति हरिरिह सरसवसन्ते!’ ठीक है, स्वरूप ! आगे सुनाओ। मेरे कर्णों में इस अमृत को चुआ दो। तुम चुप क्यों हो गये? इस अनुपम रस से मेरे हृदय को भर दो, कानों में होकर बहने लगे। और कहो, और कहो। आगे सुनाओ, फिर क्या हुआ। स्वरूप पद को गाने लगे– मृगमदसौरभरभसवशंवदनवदलमालतमाले। महाप्रभु ने कहा– ‘अहा! धन्य है, रुको मत, आगे बढो। हाँ– ‘स्मरतूणविलासे’ ठीक है, फिर ?’ स्वरूप गोस्वामी गाने लगे– विगलितलज्जितजगदवलोकनतरुणवरुणकृतहासे। महाप्रभु कहने लगे–‘धन्य, धन्य‘ ‘अकारणबन्धौ’ सचमुच वसन्त युवक-युवतियों का अकृत्रिम सखा है। आगे कहो, आगे–स्वरूप उसी स्वर में मस्त होकर गाने लगे– स्फुरदतिमुक्तलतापरिरम्भणमुकुलितपुलकितचूते। महाप्रभु इस पद को सुनते ही नृत्य करने लगे। उन्हें फिर आत्मविस्मृति हो गयी। वे बार-बार स्वरूप गोस्वामी का हाथ पकड़कर उनसे पुन:-पुन: पद-पाठ करने का आग्रह कर रहे थे। प्रभु की ऐसी उन्मत्तावस्था को देखकर सभी विस्मृति से बन गये। स्वरूप गोस्वामी प्रभु की ऐसी दशा देखकर पद गाना नहीं चाहते थे, प्रभु उनसे बार-बार आग्रह कर रहे थे। जैसे-तैसे रामानन्द जी ने उन्हें बिठाया, उनके ऊपर जल छिड़का और वे अपने वस्त्र से वायु करने लगे। प्रभु को कुछ-कुछ चेत हुआ। तब राय महाशय सभी भक्तों के साथ प्रभु को समुद्रतट पर ले गये। वहाँ जाकर सबने प्रभु को स्नान कराया। स्नान कराके सभी भक्त प्रभु को उनके निवास स्थान पर ले गये। अब प्रभु को कुछ-कुछ बाह्य ज्ञान हुआ। तब सभी भक्त अपने-अपने घरों को चले गये। |