श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी165. गोवर्धन के भ्रम से चटकगिरि की ओर गमन
गोस्वामी ने अपनी मार्मिक लेखनी से बडी ही ओजस्विनी भाषा में इनकी दशा का वर्णन किया है। उन्हीं के शब्दों में सुनिये – प्रति रोमकूपे मांस व्रणेर आकार। अर्थात ‘प्रत्येक रोकूप मानो मांस का फोडा ही बन गया है, उनके ऊपर रोम ऐसे दीखते हैं जैसे कदम्ब की कलियाँ। प्रत्येक रोमकूप से रक्त की धार के समान पसीना बह रहा है। कण्ठ घर्घर शब्द कर रहा है, एक भी वर्ण स्पष्ट सुनायी नहीं देता। दोनों नेत्रों से अपार अश्रुओं की दो धाराएं बह रही हैं मानो गंगाजी और यमुना जी मिलने के लिये समुद्र की ओर जा रही हों। वैवर्ण के कारण मुख शंख के समान सफेद-सा पड़ गया है। शरीर पसीने से लथपथ हो गया है। शरीर में कँपकँपी ऐसे उठती हैं मानो समुद्र से तरंगें उठ रही हों।’ ऐसी दशा होने पर प्रभु और आगे न बढ़ सके। वे थर-थर कांपते हुए एकदम भूमि पर गिर पडे। गोविन्द पीछे दौडा आ रहा था, उसने प्रभु को इस दशा में पड़े हुए देखकर उनके मुख में जल डाला और अपने वस्त्र से वायु करने लगा। इतने में ही जगदानन्द पण्डित, गदाधर गोस्वामी, रमाई, नदाई तथा स्वरूप दामोदर आदि भक्त पहुँच गये। प्रभु की ऐसी विचित्र दशा देखकर सभी को परम विस्मय हुआ। सभी प्रभु को चारों ओर से घेरकर उच्च स्वर से संकीर्तन करने लगे। अब प्रभु को कुछ-कुछ होश आया। वे हुंकार मारकर उठ बैठे और और अपने चारों ओर भूल-से, भटके-से, कुछ गँवाये-से इधर-उधर देखने लगे। और स्वरूप गोस्वामी से रोते-रोते कहने लगे– ‘अरे ! हमें यहाँ कौन ले आया? गोवर्धन पर से यहाँ हमें कौन उठा लाया? अहा ! वह कैसी दिव्य छटा थी, गोवर्धन की नीरव निकुंज में नन्दलाल ने अपनी वही बांस की वंशी बजायी। उसकी मीठी ध्वनि सुनकर मैं भी उसी ओर उठ धायी। राधारानी भी अपनी सखी-सहेलियों के साथ उसी स्थान पर आयीं। अहा ! उस सांवरे की कैसी सुन्दर मन्द मुस्कान थी ! उसकी हँसी में जादू था। सभी गोपिकाएँ अकी-सी, जकी-सी, भूली-सी, भटकी-सी उसी को लक्ष्य करके दौड़ी आ रही थीं। सहसा वह सांवला अपनी सर्वश्रेष्ठ सखी श्रीराधिका जी को साथ लेकर न जाने किधर चला गया। तब क्या हुआ कुद पता नहीं। यहाँ मुझे कौन उठा लाया? इतना कहकर प्रभु बड़े ही जोरों से हा कृष्ण ! हा प्राणवल्लभ ! हा हृदयरमण ! कहकर जोरों से रुदन करने लगे। प्रभु की इस अद्भुत दशा का समाचार सुनकर श्री परमानन्द जी पुरी और ब्रह्मानन्द जी भारती भी दौड़े आये। अब प्रभु की एकदम बाह्य दशा हो गयी थी, अत: उन्होंने श्रद्धा पूर्वक इन दोनों पूज्य संन्यासियों को प्रणाम किया और संकोच के साथ कहने लगे– ‘आपने क्यों कष्ट किया? व्यर्थ ही इतनी दूर आये।’ पुरी गोस्वामी ने हँसकर कहा– ‘हम भी चले आये कि चलकर तुम्हारा नृत्य ही देखें।’ इतना सुनते ही प्रभु लज्जित-से हो गये। भक्तवृन्द महाप्रभु को साथ लेकर उनके निवास स्थान पर आये। |