श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी156. निन्दक के प्रति भी सम्मान के भाव
भक्तों को इस बात का पता चला। सभी रामचन्द्रपुरी को खोटी-खरी सुनाने लगे। सभी प्रभु के समीप आ आकर प्रार्थना करने लगे।, किन्तु प्रभु ने इससे अधिक भिक्षा स्वीकार नहीं की। यह बात रामचन्द्रपुरी को भी मालूम हुई। वह भी प्रभु के भावों को ताड़ने के निमित्त प्रभु के समीप आये। प्रभु ने पूर्ववत ही उठकर उन्हें प्रेमपूर्वक प्रणाम किया और बैठने के लिये अपने से ऊँचा आसन दिया। आसन पर बैठते हुए गुरुत्व के भाव से पुरी कहने लगे- ‘हमने सुना है, तुमने हमारे कहने से अपना आहार घटा दिया है, यह बात ठीक नहीं है। हमारे कहने का अभिप्राय यह था कि आहर-विहार युक्त रहना चाहिये! इतना अधिक भी न करना चाहिये कि भजन में बैठा ही न जाय और इतना कम भी न करना चाहिये कि शरीर कृश हो जाय। युक्तपूर्वक भोजन करना चाहिये। शरीर सुखाने से क्या लाभ? प्रभु ने धीरे से नम्रता के साथ कहा- ‘मैं आपका बच्चा हूँ, आप गुरुजन जैसी आज्ञा करेंगे, वैसा ही मैं करूँगा।’ उसी स्वर में पुरी कहने लगे- ‘हाँ, यह तो ठीक है, किन्तु भोजन पेट भर किया करो।’ इतना कहकर पुरी महाराज चले गये। किन्तु प्रभु ने अपने आहार उतना ही रखा; उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं किया। इससे भक्तों को तो बड़ा ही दुःख हुआ। वे सब परमानन्द जी पुरी के पास पहुँचे और उनसे प्रार्थना करने लगे कि वे प्रभु को समझा दें। भक्तों के कहने पर परमानन्द जी प्रभु के पास गये और अत्यन्त ही क्षीण देखकर कहने लगे- ‘आप इतने कृश क्यों हो गये हैं, सुना है आपने अपना आहार भी अति सूक्ष्म कर दिया है, इसका कारण क्या है?’ प्रभु ने सरलता पूर्वक उत्तर दिया- ‘श्रीपाद रामचन्द्र जी पुरी ने मुझे ऐसी आज्ञा दी थी कि संन्यासी को कम आहार करना चाहिये।’ कुछ रोष के स्वर मे परमानन्द जी ने कहा- ‘आपने भी किसकी बात मानी? उसे आप नहीं जानते, उसका तो स्वभाव ही दूसरों की निन्दा करना है, ऐसे निन्दकों के उपदेश पर चलने लगें तो सभी रसातल में पहुँच जायँ। आपकी तो बात ही क्या है, वह तो महामहिम श्री गुरुचरणों की निन्दा किये बिना नहीं रहता था। उसके कहने से आप शरीर को सुखा रहे हैं, इससे हमें बड़ा कष्ट होता है। आप हमारे आग्रह से भर पेट भोजन किया कीजिये।’ प्रभु ने सरलता के साथ कहा- ‘आप भी गुरु हैं, वे भी मान्य हैं। आपकी आज्ञा को भी टाल नहीं सकता, आज से कुछ अधिक खाया करूँगा।’ प्रभु के ऐसा विश्वास दिलाने पर पुरी उठकर अपने आसन पर चले गये। उस दिन से प्रभु ने आहार कुछ बढ़ाया तो अवश्य, किन्तु पहले के बराबर उनका आहार फिर कभी हुआ ही नहीं। सभी भक्त मन ही मन रामचन्द्रपुरी को कोसने लगे ओर भगवान से प्रार्थना करने लगे कि जल्दी ही इनके श्वेत पैर पुरी की पावन भमि को परित्याग करके कहीं अन्यत्र चले जायँ। भक्तों की प्रार्थना भगवान ने सुन ली और थोड़े दिनों बाद रामचन्द्रपुरी महाशय अपने आप ही पुरी छोड़कर किसी अन्य स्थान के लिये चले गये। |