श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी154. पुरीदास या कवि कर्णपूर
पुरा वृन्दावने वीरा दूतो सर्वाश्च गोपिकाः। अर्थात ‘पहले श्रीकृष्णलीला में वीरा नाम की दूती जो सभी गोपिकाओं को श्रीकृष्ण के पास ले जाया करती थी। उसी वीरा दूती के अवतार मेरे पिता (श्री शिवानन्द सेन) हैं।' इसी प्रकार सभी के सम्बन्ध की इन्होंने बड़ी सुन्दर कल्पनाएँ की हैं। धन्य हैं ऐसे कवि को और धन्य है उनके कमनीय काव्यामृत को, जिसका मान करके आज भी गौर-भक्त उसी चैतन्यरूपी आनन्द सागर में किलोलें करते हुए परमानन्दसुख का अनुभव करते हैं। अक्षरों को जोड़ने वाले कवि तो बहुत हैं, किन्तु सत्कवि वही है, जिसकी सभी लोग प्रशंसा करें। सभी जिसके काव्यामृत को पान करके लटटू हो जायँ। एक कवि ने कवि के सम्बन्ध में एक बड़ी ही सुन्दर बात कही है- सत्यं सन्ति गृहे गृहेऽपि कवयो येषा वचश्चातुरी ‘वैसे तो बोलने चालने और बातें बनाने में जो औरों की अपेक्षा कुछ व्युत्पन्नमति के होते हैं ऐसे कवि कहलाने वाले महानुभाव घर घर मौजूद हैं। अपने परिवार में जो लड़की थोड़ी सुन्दरी और गुणवती होती है, उसी की कुल वाले बहुत प्रशंसा करने लगते हैं। क्योंकि उसके लिये उतना बड़ा परिवार ही संसार है। ऐसे अपने ही घर में कवि कहलाने वाले सज्जनों की गणना सुकवियों में थोड़े ही हो सकती है। सच्चा सुकवि तो वही है जिसकी कमनीय कविता अज्ञात कुल गोत्र वाले कलाकोविदों के मन को भी हठात अपनी ओर आकर्षित कर ले। उनकी वाणी सुनते ही उनके मुखों से वाह वाह निकल पड़े। जैसे कला कलाप में कुशल वारांगना के कुल गोत्र को न जानने वाले पुरुष भी उसके गायन और कला से मुग्ध होकर ही स्वयं उसकी ओर खिंच से जाते हैं।’ ऐसे सुकवियों के चरणों में हमारा कोटि-कोटि प्रणाम है। |